राजनीति में गुटबाज़ी का ज़हर — संगठन की एकता पर खतरा

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रवींद्र सिंह ‘मंजू सर’, मैहर की कलम से

रमेश ठाकुर- पश्चिम चंपारण,बिहार
दिनांक:- 11-10-2025

आज भारतीय राजनीति में गुटबाज़ी की जकड़न एक गहरा चिंतन विषय बन चुकी है। चाहे वह भाजपा हो, कांग्रेस हो या कोई अन्य राजनीतिक दल — सभी जगह गुटों में बँटाव का स्वर स्पष्ट रूप से सुनाई देता है। यह स्थिति अब सिर्फ़ शीर्ष नेतृत्व तक सीमित नहीं रह गई, बल्कि ज़िला और तहसील स्तर तक पहुँच चुकी है। कहीं “वह सांसद गुट का है”, तो कहीं “वह विधायक गुट का”, “वह जिलाध्यक्ष गुट का” — इस प्रकार की चर्चाएँ यह प्रश्न खड़ा करती हैं कि आखिर पार्टी का वास्तविक संगठन और एकता कहाँ खो गई? राजनीति में गुटबाज़ी के कारण संगठन व्यक्तिगत हितों का केंद्र बनता जा रहा है। जब हर व्यक्ति अपने दायरे में रहते हुए जिम्मेदारी निभाने के बजाय दूसरों के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगता है, तो विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न होती है। इसी से संगठनात्मक ढाँचा कमजोर होता है और पार्टी की मूल आत्मा आहत होती है।

गुटबाज़ी का दुष्परिणाम यह भी होता है कि समर्पित और निष्ठावान कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर चाटुकारों को वरीयता मिल जाती है। योग्य व्यक्ति अपनी पहचान से वंचित रह जाते हैं क्योंकि वे किसी खास गुट के नहीं होते। यही प्रवृत्ति संगठन में पद की गरिमा और अनुशासन को कमजोर करती है। रवींद्र सिंह ‘मंजू सर’ की कलम कहती है कि भारत जब विश्व के दो गुटों — सोवियत संघ और अमेरिका — के दौर में भी “गुट निरपेक्ष” बना रहा, तब वह विकसित राष्ट्र बनने की दिशा में अग्रसर हुआ। उसी प्रकार आज हमें भी किसी राजनीतिक या जातिगत गुट से ऊपर उठकर अपनी धरती और संगठन के विकास को प्राथमिकता देनी चाहिए।

गुटबाज़ी केवल राजनीति तक सीमित नहीं रही, बल्कि जातिगत और व्यक्तिगत स्तर पर भी अपनी जड़ें फैला चुकी है। आज प्रशासनिक अधिकारियों तक को गुटबंदी और जातिगत दृष्टिकोण से आँका जाने लगा है, जो लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत है। ‘मंजू सर’ का स्पष्ट मत है कि यदि हम संगठन में एकता और देश में विकास चाहते हैं, तो गुटबाज़ी की प्रवृत्ति से कोसों दूर रहना होगा। सकारात्मक सोच और सामूहिक भावना ही संगठन को मज़बूत बनाती है। अन्यथा, गुटों में विभाजित राजनीति पतन की ओर अग्रसर होती है।

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