तुलसी दास वसुधैव कुटुम्बकम् की प्रेरणा श्रोत हैं -पं-भरत उपाध्याय

0
28

विजय कुमार शर्मा बगहा पश्चिम चंपारण, बिहार


तुलसी जयंती के अवसर पर अपने निज निवास पर आयोजित एक संगोष्ठी में विचार व्यक्त करते हुए पूर्व प्राचार्य पं०भरत उपाध्याय ने कहा कि –
गोस्वामी तुलसीदास जी के जन्म और मृत्यु दोनों ही तिथियों को लेकर विद्वानों और शोधकर्ताओं के बीच मतभेद रहा है। संवत 1680 ,80 गंग के तीर, श्रावण शुक्ल सप्तमी तुलसी तज्यो शरीर ।सबसे अधिक प्रचलित और सर्वमान्य तिथि है ,लेकिन कुछ अन्य मत भी प्रचलित हैं मृत्यु तिथि में मतभेद के कारण तुलसीदास जी के जीवन से जुड़ी कई बातें लोक कथाओं दोहा और मौखिक परंपराओं पर आधारित हैं न की कठोर ऐतिहासिक अभिलेख पर, जो दोहों में कभी-कभी शब्दों या तिथियों में मिल सकते हैं। उस काल में इतिहासकारों द्वारा व्यवस्थित रूप से तिथियों का लेखन कम होता था ।जो भी जानकारी उपलब्ध है वह प्रायः ऐसे संत कवियों के शिष्यों या भक्तों द्वारा लिखी गई है जिसमें भक्ति भाव अधिक और ऐतिहासिक सटीकता कम हो सकती है। उस समय भारतीय पंचांग प्रणाली में विक्रम संवत, शक संवत आदि और तिथियों में शुक्ल पक्ष ,कृष्ण पक्ष का उपयोग होता था ।जिसे आधुनिक कैलेंडर में रूपांतरण करते समय भ्रम की स्थिति बन सकती है। अलग-अलग दोहे हैं, कुछ जगहों पर मृत्यु तिथि से संबंधित अन्य दोहे भी मिलते हैं। जिनमें श्रावण शुक्ल सप्तमी की बजाय श्रावण कृष्ण तृतीया का उल्लेख मिलता है जैसे- संवत 1680 , 80 गंग के तीर ।सावन स्यामा तीज सनि ,तुलसी तज्यो सरीर।। यहां स्यामा तीज का अर्थ श्रावण कृष्ण तृतीया है। हालांकि मतभेदों के बावजूद संवत 1680 की श्रावण शुक्ल सप्तमी को ही गोस्वामी तुलसीदास जी का देह त्याग माना जाता है और यह तिथि ही सर्वाधिक मान्य है, विशेष रूप से- संवत सोरह सौ असी ,असी गंग के तीर* ,श्रावन शुक्ल सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।
अंत में पूर्व प्राचार्य ने कहा कि हुलसी के तुलसी का काशी प्रेम सर्व विदित है जीवन मुकुति हेतु जनु कासी– काशी महाश्मशान है। वहाँ अग्नि कभी बुझती नहीं। किं बहुना, काशी में तो अग्निदेव सबको जला डालते हैं पर यहाँ सीताजी को भगवान ने अग्नि में निवास दिया। अग्नि ने सीताजी को भस्म नहीं किया क्योंकि-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ (श्रीमद्भगवद्गीता २/२३)। काशी में ही आत्मतत्त्व का विवेचन होता है और आत्मतत्त्व के लिए यही कहा जाता है। इसीलिए अग्नि नहीं जलाती, शस्त्र नहीं काटते, जल गीला नहीं करता, वायु नहीं सुखाता। ठीक इसी आत्मतत्त्व के आधार पर सीताजी को भगवान ने अग्नि में निवास दिया तुम्ह पावक महुॅं करहु निवासा । जौं लगि करौं निसाचर नासा ।। (३/२३/२) अर्थात् जबतक मैं राक्षसों का नाश कर रहा हूँ तबतक आप अग्नि में निवास कर लीजिये। और सीताजी अग्नि में प्रवेश कर गयीं— प्रभु पद धरि हियॅं अनल समानी । (३/२३/३) । पूर्ण काशी का वर्णन! वहाँ भी महाश्मशान और यहाँ भी। परन्तु वहाँ श्मशान में मृतक जला और यहाँ अग्नि में जाकर भी सीताजी नहीं जलीं, यह वैशिष्ट्य है। काशी का ।*
इस अवसर पर अखिलेश शांण्डिल्य,एडवोकेट प्रेम नारायण मणि त्रिपाठी, रवीन्द्र मणि त्रिपाठी ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here